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ख़त..

एक ख़त तुम्हारे नाम का छुपा रखा है मैंने कभी जब तुम आओ तो देखना कितने एहसास भरे हैं उसमें बहुत कुछ छुपा हुआ मिलेगा तुमको अगर ढूंढ पाओ तो ढूंढना कैसे तुम्हारे इंतज़ार के पल गुजरे कैसे तुम्हारे बिना साँसों का आना जाना रहा कैसे भीड़ में खुद को अकेला पाया कैसे रखा खुद को संभाल हर बुरी शय से आओगी जब तुम तो देखना प्यार भी भरा मिलेगा इसमें जो छोड़ गये थे दिनों दिन का वो सब भी साथ है इसमें कुछ प्यारी सी शिकायत भी मिलेगी कुछ उलहाने भी हैं कुछ शरारते भी हैं कभी जब तुम आओ तो देखना..
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Are you sure..??

हर रोज़ की तरह इस रोज़ भी मैं अपने फ़ोन को हाँथ में लेकर बैठा था फ़ोन में कुछ Delete करने को हुआ तभी फ़ोन ने मुझसे पूछा.. "Are you sure..??" मैं आश्चर्य में पड़ गया कि एक मशीन जो अपने अंदर store हो रही चीजों को, फ़ोटो को, फ़ोन नम्बर को, हर रिश्तों को मिटाने के लिए कन्फर्मेशन ले रहा है.. तो इस मशीन को चलाने वाला इंसान आखिर समझदार कैसे हुआ..?? जो रिश्तों को तोड़ने से पहले संबंधों से मुँह फेरने से पहले उसका दिल एक बार भी ना पूछे कि "Are you sure..??" अगर ये सोचें कि अपनों के बिना रह सकते हैं तो यह आधा सच है पूरा सच तो यह है कि प्रत्येक भी हर एक के बिना रह सकता है किसी के बिना दुनिया रुक नहीं जाती.. ईश्वर ने हमें जो कुछ दिया है भरपूर ही दिया है हमारे अच्छे के लिए दिया है और कर्मों के आधार पर दिया है.. कुछ भी हो, परिवार हो, मित्र हो, सखा हो.. इसलिए किसी से भी रिश्ता तोड़ने की बजाय निभाने की कोशिश ज़रूर करना चाहिए क्योंकि तोड़ना तो आसान है कोई भी तोड़ सकता है जोड़ना कठिन है.. तोड़ने, मुँह मोड़ने के समय ख़ुद से यह ज़रूर पूछें.. Am I sure..?? और सामने वाले से.. Are y

रिश्ता ये अज़नबी सा..

तो बात दरअसल उन दिनों की है जब हम स्कूल जाया करते थे हर रोज़ की तरह मैं स्कूल के टाईम पर तैयार होकर अपनी साईकिल से निकला ही था कि अचानक राह पर चलते उनसे टकरा गये बस चंद पलों में ही ये मुलाक़ात निगाहों ही निगाहों में इक़रार वो जो हमारे भी बीच चंद पलों की मुलाक़ात हुई थी ना उसने एक रिश्ते को जन्म दे दिया था.. उनसे नज़रें मिलाना नज़रें चुराना और फ़िर चुपके चुपके उन्हें देखना बस ये कारवां ऐसे ही चलने लगा और वो भी तो मुझे देख कर मुस्कुरा देती थी उसकी एक मुस्कान पाते ही पूरी ज़िन्दगी जी लेता था मैं.. काफ़ी हिम्मत जुटा कर सोचा अब उसका नाम पूछ ही लूँ इस अज़नबी से रिश्ते को कोई नाम दे भी दूँ.. हर रोज़ की तरह इस रोज़ भी स्कूल जाने को तैयार हुआ इस रोज़ कुछ ज्यादा ही जल्दी हो रही थी वहाँ पहुँचने की.. हाँ जल्दी होती भी क्यों ना आज पहली बार आँखों ही आँखों वाली इस मुलाक़ात को नाम जो मिलने वाला था उस अज़नबी का नाम पता चलने वाला था तो पहुँच गया मैं उसी चौराहे पर और उसका इन्तज़ार करने लगा पर उस रोज़ उसका ना आना मुझे बहुत दर्द दे गया था मन ही मन सोच रहा था काश पहले ही नाम पूछ लेता.. काश थोड़ी सी हिम्म

एक घर यादों का..

मैं सोच रहा था तुम्हें कैसे बताऊँ कि तुम मेरे लिये क्या मायने रखती हो मुझे याद है तुमसे दिल लगा बैठना जैसे कल की ही बात हो मैं तुम्हारे सामने बैठ तुम्हें देख मुस्कुरा रहा था मुस्कुरा तुम भी रही थी मुझे देख चुपके चुपके तभी मैनें सोच लिया था तुम्हीं तो हो जिसे मैं तलाश रहा था उसी पल हमारी बातों का सिलसिला शुरू हो गया था कितनी बातें करने लगे थे हम एक दूसरे से कभी कभी तो तुम मुझसे बात करने को घर में भी लड़ जाया करती थी मुझे इस बात का एहसास हो रहा था कि तुम मेरे लिये कितनी मायने रखने लगी हो मेरी एक्सीस्टेंस के लिये जैसे मानो तुम मेरे लिये सब कुछ हो तुम्हारे मिलने से पहले तो मैं अपनी ज़िन्दगी यूँही जी रहा था कि अचानक ये तेज रोशनी आयी और मुझे इसका एहसास हुआ वो रोशनी तुम थी.. पागल तुम भी थी मेरे लिये कितनी नादानी थी ना तुम में कोई और लड़की मुझे देख भी ले तो तुम उसे फ़ट से बोल देती थी कि ये मेरा है और मुझे आँखें दिखा कर बोलती थी ख़बरदार तुमने किसी और पे नज़र डाली तो देख लेना फ़िर मैं मुस्कान देकर बोलता था तुम हो ना देखने के लिये तुम ही काफ़ी हो ये सुनते ही गले से लग जाती थ

एक कहानी ऐसी भी..

देखोना.. लो आ गया तुम्हारे पसंद का मौसम यही तो तुमको पसंद था आलसी दिन ठिठुरन भरा हर लम्हा सर्दियाँ आते ही तुम्हारी कितनी यादें सहेज लाती हैं.. हाँ, आखिर सहेजे भी क्यों ना.. उन पलों में हमने कितना वक़्त साथ बिताया था जब कभी मैं तुम्हारे घर आता तो अक्सर चाय मैं ही बनाता था और तुम पकोड़े फ़िर दोनो साथ बैठ चाय और पकोड़े का लुफ़्त लेते थे सच कहूँ तो चाय मुझे पहले कभी इतनी पसंद नहीं थी पर तुम्हारे इस साथ ने इस चाय की आदत लगा दी थी और तुम हो की तुम्हें हमेशा मेरे हाँथों की ही बनी हुई चाय अच्छी लगती थी या यूँ कहूँ कि जैसे ही चाय का ख़याल आता नज़रें तुम्हारी मुझपर ही टिक जाती थी और मुझे देखते ही तुम्हारी वो हल्की सी मुस्कान, फ़िर चाय का इशारा.. पहले तो मैं मना करता फ़िर तुम्हारा रूठ कर मूँह फेर लेना फ़िर मेरा हल्का सा मुस्कुराना और बोलना अच्छा बाबा बना कर लाता हूँ ये सुनते ही तुम्हारा मुझे देख कर जोर से उछल पड़ना और मुस्कान देकर बोलना यही तो बात पसंद है तुम्हारी, कितना कुछ था ना.. तुम हमेशा इस सर्द मौसम में गर्म चाय और बिल्कुल ऐसे ही मेरे साथ रहने की दुआ मांगती थी और मैं हमेशा तुमसे कहता था

ख़्वाहिश..

ख़्वाहिश यही है कि अकेला निकल जाऊँ इस दुनिया से दूर कहीं जहान बना लूँ अपना मैं वहीं पर ये दुनिया हर पल मुझे अपनी मन मर्ज़ी करने से रोक लेती है कभी कहती है ये सही नहीं कभी कहती वो सही नहीं कुछ रिश्ते कुछ एहसासों का वास्ता देकर रोकती क्यों है क्यों नहीं जाने देती है मुझे क्यों नहीं बनाने देती है मुझे मेरा जहान ये वक़्त है जो फिसल रहा है ये उम्र है जो ढल रही है ना जाने वक़्त कब ख़त्म हो जाये ना जाने उम्र कब कम पड़ जाये फ़िर भी ना जाने ना जाने क्यों करती दुनिया ऐसा क्यों नहीं करने देती है मुझे मेरी मर्ज़ी का..

तलाश..

जाने कितने जन्मों से हम सब अधूरे ही हैं हम सब ही.. पूरे होने की तलब हम पर भारी है तभी तो कलम से, किताब से, रंगों से, कैनवास से यारी है.. कितने बैचेन हैं सब हर जगह खोजते हैं सुकून, ख़ुशियाँ, यारी, दोस्ती, मोहब्बत पूरे होने की तलाश अनवरत जारी है..